शनिवार, दिसंबर 16, 2023

रामा शंकर शर्मा

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा
रामा शंकर शर्मा

रामा शंकर शर्मा

प्रदेश सचिव, लोहार विकास मंच

बिहार प्रदेश

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लोहार.भारत क्या है?

शिल्पकार लोहार समुदाय के उपकरणों और तकनीकी ज्ञान, विज्ञान, इतिहास और उनके शिल्प कौशल के परिणाम तथा प्रकृति में भूमिका का एक ऑनलाइन संग्रहकोश है. जो ज्ञान को बाँटने एवं उसका प्रसार करने में विश्वास रखता हैं. जिसमे दुनिया भर में कोई भी व्यक्ति अपनी जानकारी की लेखों का योगदान हिंदी/अंग्रेजी में दे सकता हैं.

सतीश कुमार शर्मा

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा
सतीश कुमार शर्मा

सतीश कुमार शर्मा

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रविवार, अक्तूबर 29, 2023

लोहार की आवाज़ ने बजा दिया संगीत का सुर | Sat Suron Ki Khoj

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा
संगीत एक ऐसा माध्यम है जो मानव को खुशी, उदासी, क्रोध, प्रेम आदि विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करने में मदद करता है। संगीत में सात सुर होते हैं। इन स्वरों का प्रयोग करके विभिन्न प्रकार की धुनें और राग बनाए जाते हैं। संगीतकार इन स्वरों का प्रयोग करके विभिन्न प्रकार के भावों को व्यक्त करते हैं।

क्या आप जानते हैं कि सात सुरों की खोज कैसे हुई? इस लेख में आगे पढ़िए

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सात सुरों की खोज Sat Suron Ki Khoj

लोहार की हथौड़े का प्रहार से निकली ध्वनियों से सात सुरों की खोज

पाइथागोरस एक महान गणितज्ञ, रहस्यवादी और वैज्ञानिक थे, जिन्होंनेने  द्वि-परमाणुक संगीतीय मान का आविष्कार किया था, जिसके ऊपर परवर्ती शताब्दियों का संगीत आधारित रहा। संभवतः मान से संबंधित उसका यह आविष्कार उसके अंतरिक्ष विज्ञान और गणित- शास्त्र संबंधी अध्ययन से जुड़ा था।

संगीत के मान की तरह सूर्य के चारों तरफ गतिशील ग्रह भी एक निश्चित संख्यागत व्यवस्था का पालन करते हैं और शायद इसी के आधार पर पाइथागोरस ने 'अक्ष का संगीत' की अवधारणा प्रस्तुत की थी, जो संगीत सूर्य के इर्द-गिर्द पृथ्वी और अन्य ग्रहों के गतिशील रहने पर पैदा होता है।

पाइथागोरस ने किस तरह द्वि-परमाणुक संगीतीय मान का आविष्कार किया, इसका कहानी भी रोचक है।

आगे पढ़िए पाइथागोरस ने सात सुरों की खोज कैसे की?

लोहार की आवाज़ ने बजा दिया संगीत का सुर | Sat Suron Ki Khoj

एक दिन वह एक लोहार की दुकान के सामने से गुजर रहा था, तब उसने गरम धातु पर कुछ लोगों द्वारा हथौड़े का प्रहार करने की ध्वनियाँ सुनीं। उसने गौर किया कि तीन हथौड़ों को छोड़कर बाकी सभी हथौड़ों की सुसंगत ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। सप्तम, पंचम और तृतीय हथौड़े से असंगत ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं। लोहार की दुकान में प्रवेश कर उसने पाया कि हथौड़ों के वजन में अंतर होने के कारण उनकी ध्वनियों में भी अंतर आ गया था। उसने हथौड़ों के वजन को लिख लिया और घर पहुँचने के बाद चार रस्सियों में हथौड़े के वजन के बराबर लोहा बाँधकर धातु पर टकराया तो लोहार की दुकान के समान ही ध्वनियाँ सुनाई पड़ीं। उसके बाद उसने पाँच पूर्ण सुर और दो आधे सुरों की खोज की।

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सोमवार, जून 08, 2020

लोहार बनना सीखों - लोहार का शाब्दिक अर्थ - Blacksmith Meaning In Hindi

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा 3 Comments
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Blacksmith Meaning

लोहार बनना सीखों - Blacksmith Meaning In Hindi & History

मेरे प्यारे शिल्पी भाइयो,
जीवन में कुछ करना है तो लोहार बनना सीखो
पत्थर तो सब तोड़ते है, तुम पहाड़ तोड़ना सीखो
यह फौलाद का औलाद है, यह पहाड़ तोड़ता है।
जो काम कोई नहीं करता, वह लोहार करता है।
लोहरा - लोहरा सब कहे, लोहरा को समझे न कोय।
पहाड़ तोड़ जो राई करे, उसका नाम लोहरा होय।
लोहार - लोहार सब कहे, लोहार को जाने न कोय।
संसार के शिल्प गुरू का नाम, लोहार होय।
बिना लोहार इस धरती पर, होवे कमी न खेती।
लोहार के चोट से निकलता है, देखो हीरा - मोती।
लोहार फौलाद है, कमजोर न समझना लोहार को।
लोहार के चोट से लोग, याद करते है लोहार को।
लोहार ने बनाया इस धरती पर, सुई- रेल, जहाज।
तुम्ही बतलाओ लोहार को तुम, कब करोगे याद ?
जेम्सवाट, माइकल फ्राडे, एडीसन, यह लोहार के पुत है।
विज्ञान - इंजिनियरिंग कोर्स के, यही अग्रदूत है।
प्रकृति के यह तथ्य को जाने, इनका नाम तथागत।
जन्मजात बुद्धिष्ट है यह, आप इनका करो स्वागत।

लोहार का शाब्दिक अर्थ (Blacksmith Meaning) - लोहार = लो + हार अर्थात् जिसके कदमों में सारी दुनिया अपनी हार को स्वीकार ले, उस महाविभूति का नाम लोहार होता है। यह पालि भाषा का शब्द है, जो हड़या संस्कृति से लिया गया है। लोहार (Blacksmith) आदिम जनजाति हैं, जो स्वयं तीर बनाता था और चलाता था।

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बुधवार, नवंबर 20, 2019

लौह स्तंभ - प्राचीन भारतीय लोहार के उच्च स्तरीय विज्ञान का जीता जागता प्रमाण

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा 3 Comments
Iron Pillar, Delhi

लौह स्तंभ - प्राचीन भारतीय लोहार का हाईटेक साइंस का जीता जागता सबूत


Iron Pillar - "A testament to the skill of ancient Indian blacksmiths" because of its high resistance to corrosion.


लौह स्तंभ कहाँ स्थित है और यह किस लिए प्रसिद्ध है? दिल्ली का लौह स्तंभ कितना पुराना है? Where is iron pillar located and what is it famous for? How old is the iron pillar of Delhi?
दिल्ली में कुतुबमीनार के परिसर में खड़ा लौह स्तंभ (Iron Pillar) आज के विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य है. यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है. यह परिसर युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर (World Heritage) के रूप में स्वीकृत किया गया है. इस लौह स्तम्भ की सबसे खास बात यह है कि 6 हज़ार किलो वजन का 7.16 मीटर उच्चा लंबा यह लौहे का स्तंभ लगभग 99% से अधिक शुद्ध लोहे से बना हैं और 1600 वर्षो से अधिक से खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा हैं. इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नही लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय हैं. जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना हैं, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया हैं,सम्भवतः 912 ईपू में यानी आज से लगभग 3000 वर्षो पहले निर्माण किया है.

इसे ना केवल प्राचीन भारत का बल्कि समस्त प्राचीन जगत का सबसे ऊंचा स्तंभ होने पर गौरव प्राप्त है प्रतिष्ठित इतिहासकार विंसेंट स्मिथ के शब्दों में:

जब हम इतने अधिक भार वाले दिल्ली-स्तंभ को फोर्जन द्वारा बनाने वाले प्राचीन शिल्पकारों के कौशल से अचंभित हो जाते हैं, तो हमें उन विस्मृत कारीगरों की और भी अधिक प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने इससे भी अधिक वजन वाले स्मारक, धार-स्तंभ का सफलतापूर्ण निर्माण किया.

लौह स्तंभ ने पुरातत्वविदों और धातुविदों का ध्यान आकर्षित किया है और संक्षारण के उच्च प्रतिरोध के कारण इसे "प्राचीन भारतीय लोहारों द्वारा प्राप्त उच्च स्तरीय कौशल के लिए एक वसीयतनामा" कहा गया है.

[Iron pillar has attracted the attention of archaeologists and metallurgists and has been called "a testament to the high level skill achieved by ancient Indian blacksmiths" because of its high resistance to corrosion].

लौह स्तंभ, दिल्ली

लौहे का इस विशाल

  • स्तंभ की कुल लंबाई - 23 फुट 6 इंच (7.16 मी.)
  • उठे मंच से नीचे का भूमिगत भाग - 3 फुट 1 इंच (94.0 सेंमी.)
  • स्तंभ का दृष्टिगत बेलनाकार भाग - 17 फुट (5.18 मी.)
  • अलंकरणयुक्त स्तंभ-शीर्ष की ऊंचाई- 3 फुट 5 इंच (1.04 मी.)
  • निचले भाग का व्यास (मंच के पास) - 1 फुट 4.7 इंच (424 सेंमी.)
  • ऊपरी भाग (स्तंभ-शीर्ष के नीचे) का व्यास - 11.85 इंच (30.1 सेंमी.)
  • स्तंभ-शीर्ष की ऊपरी समतल वर्गाकार सतह - 1'×1' (30.5 सेंमी. 30.5 सेंमी.)
  • स्तंभ के भूमिगत आधार का व्यास - 2 फुट 0.59 इंच (62.5 सेंमी.)
  • ऊपरी लौह-बेलन का व्यास - 8 इंच (20.3 सेंमी.)
दिल्ली का लौह स्तंभ के शीर्ष

लौह स्तंभ में जंग क्यों नहीं लगता हैं?

Why has the iron pillar in Delhi not rusted?
1961 में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ॰ बी. बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है. माना जाता है कि 120 शिल्पकारों व मजदूरों के दो सप्ताह के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया. स्पष्ट है कि इन कार्मिकों व मजदूरों के नेता अत्यधिक निपुण एवं कुशल धातुकर्मी रहे होंगे तथा कारीगरों को विशेषज्ञता प्राप्त थी. आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता. सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है. इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है. स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं. इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = 1 मि. मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है.

राबर्ट हैडफील्ड ने धातु का विश्लेषण करके बताया कि आमतौर पर इस्पात को किसी निश्चित आकार में ढालने के लिए 1300 - 1400 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है. पर जो इस्पात इस स्तंभ में लगा है वो राट आइरन कहलाता है जिसे गलने के लिए 2000 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक तापमान की आवशयक्ता होती है. आश्चर्य है कि उस काल में आज की तरह की उच्च ताप भट्ठियां नही थी तो ये कैसे ढाला गया? स्पष्ट हैं प्राचीन काल में भारतीय लोहार के पास यह तकनीक थी.

1998 में IIT कानपुर के विशेषज्ञ प्रोफेसर डॉ. आर. बालासुब्रमन्यम ने काफी रिसर्च के बाद पता लगाया है कि इस स्तंभ पर लोहे, ऑक्सीज़न और हाईड्रोजन की एक पतली परत है जिसने इसे जंग लगने से बचा रखा है. डॉक्टर आर बालासुब्रमन्यम आगे कहते है कि इसके लोहे में फास्फोरस की मात्रा ज्यादा जो इसे खुरने से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण तत्व है. वर्तमान समय जो लोहा उपयोग किया जाता है उसमें फास्फोरस (Phosphorous) की मात्रा 0.05 प्रतीशत होती है परंतु इस स्तंभ में फास्फोरस की मात्रा 0.10 प्रतीशत है.

दुनिया भर में यह माना जाता है कि फ़ास्फ़रोस (Phosphorous) की खोज सन 1669 में हेन्निंग ब्रांड ने की और फ़ास्फ़रोस के जंग रोधी गुणों का पता तो आधुनिक काल में चला है. लेकिन यह स्तंभ तो 1600 वर्ष से अधिक पुराना है. स्पष्ट हैं हमारे पूर्वजों को फ़ास्फ़रोस के जंगरोधी गुण के बारे में पता था और इस बात से यह भी स्पष्ट होता हैं कि फ़ास्फ़रोस का अविष्कार भारत में लोहार द्वारा 1600 वर्ष से अधिक पहले किया जा चुका था.

भारत में इस्पात उद्योग के महारथी, टाटा आयरन एंड स्टील वर्क्स के एस. के. नानावटी ने सन् 1963 में जमशेदपुर में हुई एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में कहे थे:

प्रत्येक भारतीय अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व कर सकता है, परंतु दुर्भाग्यवश, हम अपने उस बहुमूल्य तकनीकी प्रगति का लाभ उठाने में असमर्थ रहे हैं. आज स्वतंत्र भारत के युवा धातुविज्ञानी को अपने उस अतीत से प्रेरणा लेना चाहिए जब हमारे पूर्वजों ने महत्वपूर्ण सफलताएं अर्जित की थी और आशा करनी चाहिए कि निकट भविष्य में ही हम उन धातु कर्मियों के स्तर पर पहुंच सकेंगे जिन्होंने दिल्ली में लौह-स्तंभ का निर्माण करके धातुकी कला एवं विज्ञान की प्रगति में एक कीर्तिमान स्थापित किया था.

तोप का गोला लगने का प्रमाण

लौह स्तंभ का एक भाग थोड़ा सा उखड़ा हुआ है जो साफ़ – साफ़ दर्शाता है कि इसे किसी तोप द्वारा बिलकुल पास से उड़ाने की कोशिश की गई है. हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नही है कि किसने इस पर तोप चलवाई थी, पर ज्यादातर इतिहासकार मानते है कि सन 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर अपने हमले के दौरान इस पर तोप चलाने का आदेश दिया था.

स्तंभ पर तोप के गोले लगने का निशान
धातुकर्म उद्योग में पर्यावरण प्रबंधन पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन, बीएचयू-वाराणसी (भारत) Dec, 14-16 2000 में भारतीय लोहार पर हुई चर्चा के कुछ अंश:-
Indian Lohars has mastered the forging, forge welding and heat-temperature technology at an early date. They classified the iron and steel purchased from the producers based on ductility and magnetic properties as well as the appearance of the fracture properties one such classification mentioned in Rasa Ratna Samucca (8 to 10 C.A.D.) by Kulkarni (1969). Although much details regarding the tools and techniques of the ancient Blackmith are not known but results of their craftsmanship are world famous. The Iron Pillar at Delhi (weighing more than 6 tones) is a fine example of the forging skill of Indian iron smiths and the quality of almost rustless iron produced in 4th C.A.D. in the country. There are many other iron pillars found in the country and large number of iron beams are found at Konark temple and other places in Odisha. During the latter period gun pipes weighing any thing upto 50 tones were produced in the country by forge welding of iron pieces. Recently Prakash (1989-90) Balasubramaniam (1999) and Rassler (1997) have studied and attempted to explain the possible method of production of the Iron Pillars at Dhar and Delhi and the Thanjavur gun respectively. EMMI - 2000 BHU-Varanasi (India) Dec, 14-16, 2000.

लौह स्तंभ का दूसरा दृष्य
यह पर्यटकों का आकर्षण केंद्र हैं. विश्व भर में इसे प्राचीन भारत के प्रमुख तकनीकी उपलब्धि माना जाता हैं. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह उस प्रौद्योगिकी की एक महानतम सफलता हैं. दिल्ली का लौह-स्तम्भ भारतीय धातुकर्म के गौरव का साक्षी है. सलाम हैं उन सभी भारतीय शिल्पकार लोहार को जिन्होंने अपने उच्च स्तरीय कौशल से निर्मित लौह स्तंभ विश्व को एक अद्वितीय धरोहर दिया.
जय भारत


References
  1. Proceedings of the International Conference on Environmental Management in Metallurgical Industries (EMMI-2000): 14-16 December, 2000
  2. The Rustless Wonder – A Study of the Iron Pillar at Delhi, T.R. Anantharaman, Vigyan Prakashan, New Delhi, 1996.
  3. New Insights on the 1600-Year Old Corrosion Resistant Delhi Iron Pillar, R. Balasubramaniam, Indian Journal of History of Science, 36 (2001) 1-49.
  4. The Decorative Bell Capital of the Delhi Iron Pillar -R. Balasubramaniam, Journal of Metals, 50, Number 3 (1998) 40-47.
  5. wikipedia & Other
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सोमवार, नवंबर 04, 2019

चंपारण सत्याग्रह में आदिवासी लोहार समुदाय

प्रस्तुतकर्ता: सतीश कु. शर्मा
Indigo Plant
"मैं बोधी लोहार, बेटा- परसन लोहार, जात- लोहार, सा. जागापाकड़ वो काश्तकार मौजे मजकूर तपा हरनाटाँर, परगने मझौआ, इलाका थाना गोविंदगंज वो सब रजिस्ट्रार मो. मोतिहारी, जिला चंपारन के हूँ..... हम अपने खेत पर हाजिर होकर जो अहालियान कोठी कहेंगे, तामील करेंगे."
यह नील का सट्टा था, जिसके जरिये अंग्रेजों को चम्पारण के किसानों पर अत्याचार का कागजी हक मिल जाता था. उनकी कहानी सुन 1917 में गांधी जी चम्पारण पहुचे, तो अंग्रेजी हुकूमत को शायद यह अहसास नहीं रहा होगा कि उसकी शासन-सत्ता को निर्णायक चुनौती देने वाला शख्स का अवतार हो चुका हैं. चंपारण की प्रजा नील बोना बिलकुल नापसंद करती थी. सन् 1906 तक नीलवरों और रैयतों का सरोकार जैसा-तैसा चलता गया. सन् 1907 के शुरू होते ही बेतिया इलाके में अशांति के चिन्ह देखने में आए.

सन् 1907 के मार्च में चंद किसानों ने मोतिहारी मजिस्ट्रेट के इजलास में एक दरखास्त दी, जिसमें और बातों के सिवाय यह भी लिखा था- "छह या सात साल से साठी कोठी रैयतों को तरह-तरह से तंग कर रही है. वह हम लोगों से अधिक मालगुजारी ले रही है और बेगार का काम करवाती है, जबरदस्ती नील बोवाती हैं और उसका पूरा दाम नहीं देती और हम लोगों के विरोध झूठा फौजदारी का मुकदमा लाकर नील बोने का सट्टा लिखने के लिए हम को बाध्य करती है." जब साठी कोठी के मैनेजर ने देखा कि नील की खेती पहले जैसा नही हो सकती तो कई को लालच में फसाया और कई पर झूठा आरोप लगा कर दबाव बनाया लेकिन अशांति न रुकी.

तारीख 14 अगस्त, सन् 1907 को कोठी के रैयतों ने एक दरख्वास्त चंपारण के कलक्टर के पास भेजे, जिसमे उन्होंने अपने दुःख की कहानी सुनाई थी और अंत में उन्होंने जांच के लिए प्राथना की. इस दरख्वास्त पर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने कड़ी जांच के लिए हुक्म दिया लेकिन जांच संतोषजनक नही हुआ क्योंकि छोटे लाट के पास एक मेमोरियल भेजा गया था, जिसमे जांच के संबंध में तीन ही मौजे में जांच हुई और फिर जांच पूरी किए बिना ही चले जाने की बात कही गई. अशांति ज्यों-की-त्यों बानी रही, बल्कि उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई.

नवंबर महीने के आरंभ में लौरिया थाने के दारोगा ने बेतिया के मजिस्ट्रेट के पास एक रिपोर्ट भेजी, जिसमें लिखा था कि चंद रैयत दूसरों को नील बोन से मना करते हैं और मालगुजारी देने से भी रोकते हैं, इसलिए उनपर 107 धारा के अनुसार कार्रवाई की जाए. मजिस्ट्रेट ने चंद रैयत से शांति रखने के लिए मुचलका लिया. बेचारे रैयत इन काररवायों से परेशान हो गए. कितने जेल गए, कितनों से मुचलका लिया गया और कितने को डंडापेटी दी गई (स्पेशल कांस्टेबिल मुकर्रर किए गए). इस संबंध में जो मेमोरियल छोटी लाट को दिया गया, उसका भी कोई संतोषजनक फ़ल नहीं हुआ. किंतु इतने दुखों को झेलने पर भी रैयत नील बोने पर राजी नहीं हुए. अंत में साठी कोठी को नील पैदा करना बंद करना पड़ा और रैयतों के सिर से एक भारी बोझ हटा.

पर, कोठी चुप कब बैठ सकती थी? उसने एक दूसरा ही रास्ता रैयतों से रुपया वसूल करने का निकाला, जिससे नील का घाटा पूरा हो जाय. आगे भी ऐसे कई तरह के खर्च किसानों के ऊपर लगाए गए, जुरमाने लगाए गए, झूठे मुकदमे चलाये गए, जेल भेजे गए. सीधी-सादी भोली-भाली चंपारण की प्रजा पर अन्याय और अत्याचार बढ़ती गई. कई शिकायतें हुई, कई जांच हुए, सब के सब असंतोषजनक निकले. अन्याय और अत्याचार सहने की सीमा घटता गया तथा विरोध और आंदोलन के रूप रेखा बढ़ता गया. किसानों के बुलाहट पर 15 अप्रैल, 1917 को महात्मा गांधी जी का चंपारण में आगमन हुआ. अंग्रेजों द्वारा चम्पारण के किसानों पर अत्याचार का सबूत जुटाए गए, हजारों-हजारों की संख्या में किसानों का सहयोग मिला, जिसमें आदिवासी लोहार समुदाय भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिये, जिसमे से कुछ का नाम इस प्रकार है- बाबा बोधी लोहार, बुटाई लोहार, देवदत्त ठाकुर लोहार, रामकिशुन लोहार, महावीर लोहार, अकलू लोहार, मियन्ना लोहार, महादेव लोहार, लंगट लोहार, चिंतामन लोहार, जयपाल लोहार, धनेशर लोहार, सुखल लोहार, शिवगुलाम लोहार, लखन लोहार, भिखार लोहार, रामध्यान लोहार, गजाधर लोहार, सुग्रीम लोहार, रामअधीन लोहार, गुरुदयाल लोहार, कलन लोहार, धरीच्छन लोहार, पतिराम लोहार, राम प्रसाद लोहार, गोविंद लोहार, निर्मल लोहार, नथुनी लोहार, पशुपत लोहार, फिरंगी लोहार, भगनू लोहार एवं कई और आदिवासी लोहार समुदाय के लोग भी शामिल रहें.

महात्मा गांधी जी
करीब साल भर तक गांधी जी चंपारण के इलाकों में घूमते रह रहे, जनमानस पूरी तरह उनके साथ था. गांधीजी के चंपारण पहुंचने की खबर देश भर में फैल चुकी थी. शासन पर भी दबाव था. आखिरकार मार्च 1918 में चंपारण एग्रेरियन एक्ट पारित हुआ और रैयतों का बोध काम हुआ. गांधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था. इसे चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है. यही सत्याग्रह गांधी जी के अगले सत्याग्रहों और आजादी की लड़ाई के लिए आधार बना. चंपारण की घटना का एक अत्यंत विस्तृत और विराट रूप देश में महान आंदोलन का रूप लिया.

संग्रहकर्ता - सतीश कुमार शर्मा, पूर्वी चंपारण
- रामा शंकर शर्मा (ST RSS), रोहतास (राष्ट्रीय महासचिव - राष्ट्रीय शिल्पकार महासंघ, प्रदेश सचिव - लोहार विकास मंच, बिहार प्रदेश)

References -
1. चंपारण से अंग्रेजी राज को गांधी ने दी थी चुनौती (2012) - रजी अहमद, निर्देशक - गांधी संग्रहालय, पटना
2. 'चंपारण में महात्मा गांधी' नामक ग्रंथ - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति)
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चंपारण सत्याग्रह की सम्पूर्ण कहानी एक छोटी सी आर्टिकल में लिखना संभव नहीं हैं. इस आर्टिकल में आदिवासी लोहार समुदाय के सिर्फ उन ही आंदोलनकारियों का नाम हैं जिनका उपनाम लोहार हैं. चंपारण में उपनाम लोहार के अलावे अधिकांश लोग ठाकुर, शर्मा, मिस्री टाईटल रखते हैं, लेकिन यह टाईटल अन्य वर्ग के लोग भी रखते हैं.

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